अफगानिस्तान संकट

In this post we are going to discuss about the अफगानिस्तान संकट

अफगानिस्तान संकट (1979-89) एक ऐसा ऐतिहासिक घटना है जिसने मध्य एशिया के राजनीतिक और सामाजिक ढांचे को गहराई से प्रभावित किया। यह संघर्ष 1979 में शुरू हुआ और 1989 तक चला, जिसमें सोवियत संघ की सेनाओं ने अफगानिस्तान पर आक्रमण किया और वहां की सरकार का समर्थन किया। इस संकट का न केवल अफगानिस्तान बल्कि पूरी दुनिया पर व्यापक प्रभाव पड़ा। इस लेख में, हम इस संकट के मुख्य कारणों, घटनाओं, और परिणामों पर चर्चा करेंगे।

अफगानिस्तान संकट

अफगानिस्तान एक सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण देश है जो मध्य एशिया और दक्षिण एशिया के बीच स्थित है। इसकी भौगोलिक स्थिति इसे विभिन्न महाशक्तियों के लिए आकर्षण का केंद्र बनाती है। 19वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य और रूस के बीच हुए ‘ग्रेट गेम’ के दौरान भी अफगानिस्तान एक महत्वपूर्ण मुद्दा था। 20वीं सदी के मध्य तक, अफगानिस्तान एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में उभर चुका था, लेकिन यह विभिन्न आंतरिक संघर्षों और बाहरी हस्तक्षेपों का शिकार होता रहा।

सोवियत आक्रमण के कारण

1970 के दशक के अंत तक, अफगानिस्तान की राजनीतिक स्थिति अस्थिर थी। 1978 में, अफगानिस्तान की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (PDPA) ने सरकार का तख्ता पलट कर दिया और एक साम्यवादी शासन स्थापित किया। इस तख्तापलट को ‘सौर क्रांति’ के नाम से जाना जाता है। पीडीपीए की सरकार ने कई समाजवादी सुधार लागू किए, लेकिन ये सुधार अफगान जनता के एक बड़े हिस्से के लिए अस्वीकार्य थे, विशेषकर ग्रामीण इलाकों में।

इस राजनीतिक अस्थिरता के बीच, सोवियत संघ को चिंता होने लगी कि अफगानिस्तान में उसके हितों को खतरा हो सकता है। शीत युद्ध के समय, सोवियत संघ और अमेरिका दोनों महाशक्तियाँ दुनिया भर में अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र को बढ़ाने की कोशिश कर रहे थे। अफगानिस्तान में अस्थिरता के चलते सोवियत संघ ने दिसंबर 1979 में अफगानिस्तान पर आक्रमण कर दिया और वहां की साम्यवादी सरकार का समर्थन किया।

संघर्ष और घटनाक्रम

सोवियत आक्रमण के बाद, अफगानिस्तान में एक गृहयुद्ध की स्थिति बन गई। सोवियत संघ ने अपने सैनिकों के साथ अफगान सेना का समर्थन किया, जबकि अफगान मुजाहिदीन गुरिल्ला समूहों ने इन सेनाओं के खिलाफ लड़ाई शुरू की। मुजाहिदीन को अमेरिका, पाकिस्तान, सऊदी अरब और अन्य पश्चिमी देशों से समर्थन मिला। इस संघर्ष ने अफगानिस्तान को युद्ध के मैदान में बदल दिया और लाखों लोगों को अपने घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया।

1980 के दशक के दौरान, अफगानिस्तान में संघर्ष और हिंसा की स्थिति बनी रही। सोवियत संघ की सेना और मुजाहिदीन के बीच लड़ाई ने देश की अर्थव्यवस्था और समाज को बुरी तरह से प्रभावित किया। इस दौरान, हजारों नागरिक मारे गए और लाखों लोग शरणार्थी बनने पर मजबूर हुए। अफगानिस्तान के ग्रामीण इलाकों में विध्वंस और विनाश का माहौल था, और देश की बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान हुआ।

अंतर्राष्ट्रीय प्रभाव और हस्तक्षेप

अफगानिस्तान संकट ने अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर भी गहरा प्रभाव डाला। अमेरिका और उसके सहयोगियों ने मुजाहिदीन का समर्थन किया और उन्हें हथियार, धन, और प्रशिक्षण प्रदान किया। इस समर्थन का उद्देश्य सोवियत संघ को कमजोर करना और उसके प्रभाव को सीमित करना था। दूसरी ओर, सोवियत संघ ने अपने सैनिकों को बढ़ावा दिया और अफगान सरकार को समर्थन दिया।

इस संघर्ष के कारण शीत युद्ध के तनाव और बढ़ गए। अफगानिस्तान संकट ने अमेरिका और सोवियत संघ के बीच की प्रतिस्पर्धा को और तेज कर दिया। इस संघर्ष ने न केवल अफगानिस्तान बल्कि पूरी दुनिया की राजनीति को प्रभावित किया।

संकट का अंत और परिणाम

1980 के दशक के अंत तक, सोवियत संघ को अफगानिस्तान में बढ़ते नुकसान और घरेलू समस्याओं का सामना करना पड़ा। 1985 में मिखाइल गोर्बाचेव ने सोवियत संघ के नेता के रूप में पदभार ग्रहण किया और उन्होंने अफगानिस्तान संकट को समाप्त करने का निर्णय लिया। 1988 में, जिनेवा समझौते के तहत, सोवियत संघ ने अपने सैनिकों की वापसी शुरू की, और 1989 तक सभी सोवियत सैनिक अफगानिस्तान से बाहर चले गए।

सोवियत संघ की वापसी के बाद, अफगानिस्तान में संघर्ष समाप्त नहीं हुआ। मुजाहिदीन समूहों के बीच सत्ता के लिए संघर्ष जारी रहा, जिसने देश को और अधिक अस्थिरता की ओर धकेल दिया। 1990 के दशक में तालिबान का उदय हुआ, जिसने अफगानिस्तान में इस्लामी कानून लागू किया और देश को एक कट्टरपंथी इस्लामी राज्य में बदल दिया।

निष्कर्ष

अफगानिस्तान संकट (1979-89) ने न केवल अफगानिस्तान बल्कि पूरे विश्व की राजनीति को प्रभावित किया। इस संकट ने शीत युद्ध के तनाव को और बढ़ाया और मध्य एशिया में स्थिरता को खतरे में डाल दिया। इस संघर्ष के परिणामस्वरूप अफगानिस्तान को भारी नुकसान हुआ, और यह देश आज भी उस युद्ध के घावों से उबरने की कोशिश कर रहा है। इस संकट से यह स्पष्ट होता है कि महाशक्तियों के बीच की प्रतिस्पर्धा और हस्तक्षेप ने कैसे एक छोटे देश की संप्रभुता और स्थिरता को बुरी तरह प्रभावित किया।

अफगानिस्तान संकट की यह कहानी हमें यह याद दिलाती है कि युद्ध और हस्तक्षेप का हमेशा एक मूल्य होता है, और यह मूल्य अक्सर निर्दोष नागरिकों को चुकाना पड़ता है। अफगानिस्तान का इतिहास इस बात का गवाह है कि कैसे बाहरी शक्तियों के स्वार्थ और स्थानीय संघर्षों ने एक संपूर्ण राष्ट्र को विनाश के कगार पर ला दिया।

आज, जब हम इस संकट की ओर देखते हैं, तो हमें यह समझने की आवश्यकता है कि शांति और स्थिरता की ओर बढ़ने के लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग और संवाद कितना महत्वपूर्ण है। अफगानिस्तान संकट हमें यह सिखाता है कि संघर्षों को हल करने का सबसे अच्छा तरीका संवाद और कूटनीति है, न कि हिंसा और युद्ध।

इसलिए, जब भी हम अफगानिस्तान संकट की चर्चा करते हैं, हमें यह याद रखना चाहिए कि यह केवल इतिहास का एक पन्ना नहीं है, बल्कि यह एक सबक है जिसे हमें समझना और सीखना चाहिए, ताकि भविष्य में ऐसे संकटों से बचा जा सके।

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